अंततः
मैं रहूँ या न रहूँ
क्या फर्क पड़ता है?
दरख्तों के वे कोमल पत्ते तो होंगे
जिनका स्पर्श हमने मिलकर किया था कभी
जमीं की गीली मिट्टी भी होगी
जहाँ हमने अपने पैरों के निशां मिलाये थे...
तन्हाईयाँ भी होगी
जिसे हमने अलग - अलग महसूस की थी शायद ...
तुम्हारे पास मेरे पुराने ख़त होंगे
वह किताबे भी होंगी
जिसे वादा कर तुमने कभी नहीं लौटाई
डाइरी के पन्नों के बीच
मेरा दिया हुआ गुलाब सूख गया होगा
मैं नहीं हूँ तो क्या फर्क पड़ता है?
तुम्हारे लम्बे घने बाल होंगे
और चेहरे पर मुस्कराहट के फूल
कस्तूरी गंधयुक्त देह
तुम्हे कोई अपना सा लगने लगेगा
फिर वही सिलसिला ...
पत्तों का छूना
गीली मिटटी पर चलना
ख़त लिखना ......फूल देना ...
एक दुसरे का स्पर्श कर
हदों को पार कर टूटना
फिर जुड़ने का प्रयास करना
और अंततः जुड़ जाना
ऐसे में ..... मैं रहूँ या न रहूँ
क्या फर्क पड़ता है .